दुआ लिखूं या ख़ुदा लिखूं , इस दुनिया में आने के पहले तूही अपनी थी यहां आने के बाद भी सिर्फ तूही अपनी है, मै किसी को बेटे से कम दि खी तो किसी को दहेज़ का अभिशाप तू ही तो है जिसे मैं सिर्फ एक नन्ही परी दिखी, रिश्तेनातों और करीबियों को भी बोझ लगी मगर तुझे तेरी औलाद सदा अनमोल लगी, याद है मेरी गलतियों पर तेरा नाराज़ होना फिर भी पापा के गुस्से से मुझे हमेशा बचा लेना, जब बांस की बेंत मुझे पीटने को आतुर होते तेरी पीठ मुझे हमेशा बचाने को हाज़िर रहते, समझ नही आता तुझे क्या लिखूं तूने सिखाया सहशक्ति और ज़िद्दी भी बनाया अपने हक़ के लिए लड़ना भी सिखाया, मगर माँ तेरी कुर्बानियों के लिए कभी तुझे लड़ता नही पाया??? सवाल भी है और उधेड़बुन भी है क्यों तेरी मर्ज़ी के बगैर भी तुझे हर वक़्त पापा के साथ खड़ा पाया, माँ तू वही जिसने मुझे भी सहना सिखाया और बेटी, बहन और पत्नी बनना सिखाया, तेरी बेटी हूँ तो बर्दाश्त तो करुँगी मगर माँ अपना हक़ अपनी मन मर्ज़ी के लिए ज़रूर लड़ूंगी, समझ नही आता तुझे क्या लिखूं एक दिन क्या एक जनम भी काम है तेरे बखान करने को, एक बार फिर तैयार होगी सिर्फ तेरी बेटी तेरी ख़ुशी के लिए खुद को कुर्बान ...