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Showing posts from April, 2013

अंजानी सी आहट

एक अंजानी सी आहट है कोई पहचानी सी चाहत है।। हर दर पर देती दस्तक है इस दिल में थोड़ी हलचल है, आंखों में बहते सपने हैं, कुछ उनके हैं कुछ अपने हैं।। कुछ झूठे हैं कुछ सच्चे हैं, जैसे भी हैं पर अच्छे हैं, ख्वाबों का मोती सच्चा है, पर थोड़ा सा कच्चा है।। ये राहें अंजानी सी हैं, पर नजरें पहचानी सी हंै, जिनको न देखा न जाना वो होने को अपना है।। भावनाओं के सागर में हम खाते हिचकोले हैं। कुछ वो सीधे-सीधे हैं कुछ हम भोले-भाले हैं। ये कहना है लोगों का हमसे खुशियां की ये दस्तक है अब बाहें पसार खड़े हो जाओ, बहार बुलाने वाली है। दीपा श्रीवास्तव

फिर हारी इंसानियत

एक तरफ हर घर में अपनी बेटियों को लेकर ये दशहत है कि उनको कैसे सुरक्षित रखा जाए। मगर दिल्ली में फिर से पांच साल की बच्ची के साथ हुए बलात्कार ने फिर से दिल दहला दिया। मेरे समझ में ये नहीं आ रहा कि आखिर ऐसा लोग कैसे कर सकते हैं। कुछ ज्यादा समझदार लोगों का मानना है कि जो लोग बलात्कार जैसा अपराध करते हैं। वो मानसिक रोगी होते हैं मगर उन पुलिस अधिकारियों को क्या कहेंगे। जो ये कहते हैं कि पैसे लो और चुप रहो। अब बेटी के साथ जो भी हुआ उसे जाने दो। क्या ऐसा ही चलता रहेगा। दिल्ली रेप केस के बाद लगा था कि अब इस अपराध पर कुछ ठोस नियम बनेगा लोग डरेंगे मगर यहां तो कहानी ही उल्टी है। लोगों में जागरुकता के बजाय एक आइडिया मिल गया है कि किस तरह अपराध करके बचा जाए। कितने अफसोस की बात है कि जिन्हें लोग मानसिक रोगी कहते हैं वो अपनी खुद की मां-बहन का मुंह नहीं काला करते बल्कि दूसरों पर नजर रखते हैं। ऐसा मर्दों के साथ ही क्यूं है। हर बार वो क्यूं महिला जाति के साथ जोर जबरदस्ती करते हैं। यही रहा तो वो दिन भी दूर नहीं है , जब लड़कियां भी गुट में निकलेंगी और अकेले चलते लड़कों पर फबत्तियां कसेंगी और उनको भी ऐसे ह

ख्वाबों की चादर

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ख्वाबों की जो चादर है कुछ मैली है, कुछ धुंधली है कुछ धीमे-धीमे चलते हैं, कुछ हवा से बातें करते हैं।। जब आंख खुली तो देखा, कुछ पास मिले कुछ दूर चले सिरहाने का जो तकिया था, वो कब फूलों के जैसा था।। जिस नुक्कड़ पर हम मिलते थे उसका अब नामों निशान नहीं जिस घर का सपना देखा था अब उसका भी अरमान नहीं।। कुछ चाय के प्याले बिखरे थे, कुछ प्लेटें टूटी-फूटी थीं जिनके संग खेला था गुच्चू और खो-खो वो सखियां हमसे रूठी थीं।। एक ठेले वाला होता था जो अपना सहारा होता था कुछ कंपट बेचा करता था, कुछ चंपक देखा करता था।। चंद पल में वो सब बीत गया, वो वक्त ही हमसे छूट गया न साथ रहे अब वो साथी न साथ रहा अब वो सावन।। जहां पेड़ पर लच्छी डाली खेली थी, और उसकी कलाई टूटी थी मां भी हम पर चिल्लाई थीं, चाचा न करी पिटाई थी।। वो पेड़ अब मोटा तगड़ा है वो भी हमसे अब अकड़ा है, एक बार शिकायत की थी मुझसे, न छोड़कर हमको यूं जाना।। ख्वाबों की बगिया खाली है, यादों की चादर भारी है दीपा श्रीवास्तव

शब्द

शब्द वो अनमोल चीज जो प्यार से निकले तो दिल जीत ले नफरत से निकले तो दिल चीर दे शब्द लाल, हरे, नीले, पीले बहुरंगी शब्द शब्द जिसने मुझे प्यार का एहसास कराया, शब्द जिसने मुझे दुनिया के क्रू रूप को दिखाया ये शब्द ही तो हैं जिनसे मैं दिन रात, सुबह शाम खेलती हूं यही तो मुझे रोजी-रोटी और जीने का जज्बा देते हैं ये शब्द ही तो हैं जिसने मुझे तेरे होने का एहसास कराया था, ये वही हैं जिसने तेरे गैर होने का एहसास कराया था ये वही शब्द हैं जो रात की तन्हाई में मेरे चारों ओर घूमते हैं चीखते हैं, चिल्लाते हैं और मुझे रूलाते हैं ये शब्द ही तो हैं जो आज भी हर ओर हर क्षण मेरे होने का एहसास दिलाते हैं मुझे पहचान दिलाते हैं कितने सच्चे और अच्छे हैं ये शब्द दीपा श्रीवास्तव