गुलमोहर
एक दौर था जब बागो में कोयल की कु कु होती थी;
तपती धूप में जब हम उन बागों में घूमा करते थे,
आम के पेंड़ से हम टिकोरे तोड़ा करते थे,
वो लू के थपेड़ो में धमा चोकड़ी भरना,
डाली- डाली पर कूद कूद कर खेलना,
जब कल देखा कुछ बच्चो को आंधी में,
वो बीन रहे थे फूल गुलमोहर के,





तेज हवाएं बहती थी,
रहता था आंधी का इंतजार,
डाली हिलती थी हम दौड़ते थे,
पेंड़ो के नीचे कब टपकेगा वो,
हम निहारते सब पेड़ो को,
अब गांव नहीं  है न बचपन है,
न ही आमो की डाली है,
गली में एक पेंड़ गुलमोहर का,
जिसके फूल बीनते बच्चे है,
दीपा

Comments

उम्दा प्रस्तुती !!!! विचारणीय रचना !!!!!
incomplete lag rahi hai !!
Udan Tashtari said…
बचपन याद दिला जाते हैं ऐसे क्षण.
Anonymous said…
सीधी सच्ची और अच्छी सोच

Best one

अब तो जागो