पानी जौ और तिल का
पितृपक्ष के शुरू होते लोगों के घरों में पूर्वजों के पानी और खाना देने का सिलसिला शुरू हो गया। ऐसा लगता है मानों पूर्वज जिंदा हो उठे हैं और हर कोई इनके सत्कार में जुट गया है। दादा जी की गए तो कई साल हो गए मगर साल इन दिनों मम्मी पापा उनकी सेवा में जुट जाते हैं खासकर के मां, क्योंकि उनकी अपनी सासू मां अपनी मां से भी ज्यादा प्यारी हैं। खैर यहां बात इस बात की नहीं है कि कौन किसे प्यारा है और किसे नहीं मगर सच तो ये है कि पहले लोगों में पितृपक्ष को लेकर कई धारणाएं थी जो आज तब्दील हो चुकी हैं। कोई इसे पूर्वजों के दोबारे हमारे घर आने का समय मानता था तो कोई इसे पूर्वजों की सेवा का अवसर मगर अब तो नजारा ही कुछ और है। अब इस भागती जिंदगी में अमूमन लोगों के पास इन सब के लिए वक्त ही नहीं हैै। इस बारे में अगर किसी से बात करो तो लोगों का जवाब यही होता है कि जब जीती जी उनकी सेवा नहीं की तो मरने के बाद पानी देने से क्या होता है। कल मां आई और उनको यहां भी दादी-बाबा को पानी देते देखा तो वो जमाना याद आ गया जब मेरा पूरा परिवार साथ रहता था गांव में पितृपक्ष की शुरूआत होते ही मालिन काकी आती थी और ढेर सारे फूल और माला देकर जाती थीं। उस समय मम्मी तो पूजा पाठ तैयारी कर रही होती थी और मैं आधी जागी आधी सोयी से हुआ करती थी, लेकिन जैसी ही मालिन की आवाज आती पैर बिस्तर से सरपट बाहर की ओर भागते थे। इसकी दो वजह थी एक तो ये दादी को मैंने कभी देखा नहीं था मगर सुना बहुत कुछ था कि वो बहुत अच्छी थी और बाबा मुझे बहुत प्यार करते थे वो हमेशा मुझे अपने पास रखना चाहते थे, दूसरी वजह ये थी कि मुझे फूलों से भी बहुत प्यार है उम्र के इस दौर में भी उन्हें चुराने की और निहारने की आदत नहीं गई है। इतना ही नहीं अब जब सबकुछ तेजी से बदल रहा है तो बुआ के यहां का दिन भी याद आ गया वहां भी इन दिनों यही सब होता था। मैं छोटी थी तो बाग से फूल लाने की जिम्मेदारी मेरी होती थी और बुआ के यहां से लेकर अपने घर पर भी पानी देने के लिए कुश और जौ तिल मिलाकर रखना मेरी जिम्मेदारी हुआ करती थी। इसके अलावा दोनों टाइम के खाना दादा-दादी के नाम से निकाल भी जरूरी होता था।
बहरहाल बात इस समय की करें तो हमसे कई लोग ऐसे हैं जो इन सब रिवाजों से कोसों दूर है फिर भी इन सारी चीजों के बारे में जानना जरूर चाहते हैं। आज भी याद है जब पितृपक्ष के बाद जब श्राद्ध की बारी आती थी हमारे कुल पुरोहित जिन्हें हम पंडित बाबा कहते थे करीब पचास लोगों के साथ एकादशी को आते थे जो बाबा की पुण्य तिथि है इस दिन सैकडों पंडित को खाना खिला कर मम्मी पापा दान करते थे। वहीं एक दिन ऐसा भी आता है जिसे बुढिया की विदाई का नाम दिया गया है इस दिन मम्मी दादी का श्राद्ध करती थी। ये सारे सिलसिले आज भी बादसतूर जारी है मगर अंतर सिर्फ इतना है कि न तो आज हमारे कुल पुरोहित जिंदा है और न ही मेरे पास इतना वक्त है कि मैं वहां जाकर इन सब चीजों को देख सकूं और मां का हाथ बटा सकंू। बाबा- दादी की याद तो हमेशा जेहन में रहती हैै। मगर डर लगता कहीं ये सारी चीजें हमसे दूर न हो जाएं
दीपा श्रीवास्तव
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