अजीब लगता है जब हमारी ही उम्र के लोग संस्कारों को झुठलाते फिरते हैं, इतना ही नहीं खुद के आगे किसी की सुनते भी नहीं है कुछ दिन पहले मैं बस से सफर कर रही थी एक बुर्जग अपनी पोती के साथ बैठे थे उन्हांेने ने अनायास ही उस लड़की को पुराने जमाने के खाने का जिक्र कर दिया ऐसा बिल्कुल नहीं है कि आज वो व्यंजन हमारे थाली का हिस्सा नहीं है मगर उस हद तक नहीं है जिस हद तक हुआ करते थे। पिछले चार साल से लखनऊ में रह रही हूं और मम्मी-पापा भी साथ में नहीं है ा ऐसे में भाई बहनों को पुराने रिवाजों और संस्कारों के अवगत कराना मेरा फर्ज भी है और जरूरी भी हैै। खैर बात उन बुर्जुग की करें तो उन्होंने उसे बस इतना बताया कि बिटिया तुमने नागपंचमी में न तो घर में दूध और लावा छिडका और न ही दलभरी पूरी ही बनाई। त्यौहार के दिन बेटा तवा भी नहीं चढाया जाता है और तुमने............ मैं भी गांव के परिवेश से जुडी हूं तो उनका दर्द समझ में आ रहा था। वहीं वो लडकी बाबा पर विदक गई और कहा बाबा आखिर आप चाहते क्या हैं अगर हम नागपंचमी में पूडी नहीं खाएंगे और सकट में तिल के लड्डू नहीं खाएंगे तो क्या हम हिंदू से मुस्लमान हो जाएंगे या मर जाएंगे। बुर्जुग के आंखों में आंसू आ गए , मगर मोहतरमा अनायास ही बडबडाए जा रही थी। उसकी तलख आवाज सुनकर मुझे अफसोस तो हुआ साथ मैं भी उस लडकी को बिना कुछ कहे नहीं रह सकी। गलती से वो मोहतरमा भी मीडिया से जुडी हुई थी तो बाते सुनने में और मजा आ रहा था। जैसे ही मैंने उनसे सवाल किया क्या आपको इनकी फिक्र नही है? आपके बाबा आपके साथ बुढापे में है जोकि आपकी हिफाजत के लिए सही है। उनका जवाब था हमारी फील्ड में ग्लैमर बहुत ज्यादा है खुद के लिए इतना वक्त नहीं होता है िक इन देहाती कामों में वक्त जाया किया जा सके। इसके साथ उन्होंने मेरा भी परिचय पूछ डाला और मेरे बोलने से पहले ही कह दिया कि आपके लिए ये सब आसान होगा क्योंकि आपकी फैमली आपके साथ होगी वो इन रीति रिवाजों को करती होगी लेकिन मैं अकेली हूं। मुझे उसपर हंसी आई और अफसोस भी हुआ कि क्या ऐसा सच में है! ठतने में मेरी बहन ने उसे बताया दीदी आप शायद जानती नही ंहम लोग यहां अकेले हैं पांच भाई बहन साथ रहते हैं। आज तक किसी त्ःयौहार में किसी रिवाज को नहीं विसराया गया। वजह इतनी सी है कि दीदी ऑफिस से आकर वो सब करती है जो मम्मी घर पर करती हैैं। मिस रिपोर्टर का मुंह बन गया और दादा जी को हंसी आ गयी। क्योंकि आज भी करवाचौथ हो या तिलवा भले ही इन दोनों त्यौहार का खाना बनाना झंझट होता है मगर उनसे किनारा करना शायद मेरे बस की बात नहीं। ये तकलीफ सिर्फ उन बाबा का नहीं है। ऐसे सैकडो लोग हैं तो आज रीति रिवाजों को विसरा रहे हैं। कुछ को दर्द होता है वो रो देते कुछ कुढते है मगर कहते नहीं है। मगर पुरानी चीजों से लगाव हर किसी को होता है। फिर चाहे वो मां के हाथ का तिल का लड्डू हो या दल भरी पूडी सब कुछ यादों में रहते हैं।
कहते हैं कि शीशा कितना भी चमक ले पीठ पीछे वो काला ही होता है।
हमारे संस्कार भी वैसे ही हैं जब हम उनके साथ नहीं रहेंगे अंदर से काले ही रहेंगे,बडी बिल्डिंग और बडी गाडी ही सबकुछ नहीं असल में कहीं न कहीं हम इनके बिना अधूरे हैं।
दीपा श्रीवास्तवा
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